मुंशी प्रेमचंद-दो बैलों की कथा
जानवरों में गधा
सबसे ज्यादा
बुध्दिहीन समझा जाता है।
हम जब
किसी आदमी
को पल्ले
दर्जे का
बेवकूफ कहना
चाहते हैं,
तो उसे
गधा कहते
हैं। गधा
सचमुच बेवकूफ
है, या
उसके सीधेपन,
उसकी निरापद
सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे
दी है,
इसका निश्चय
नहीं किया
जा सकता।
गायें सींग मारती
हैं, ब्यायी
हुई गाय
तो अनायास
ही सिंहनी
का रूप
धारण कर
लेती
है। कुत्ता भी बहुत गरीब
जानवर है,
लेकिन कभी-कभी उसे
भी क्रोध आ ही जाता
है। किन्तु
गधे को
कभी क्रोध
करते नहीं
सुना, न देखा।
जितना चाहे
गरीब को
मारो, चाहे
जैसी खराब,
सडी हुई
घास सामने
डाल दो,
उसके चेहरे
पर कभी
असंतोष
की छाया भी न दिखाई
देगी। वैशाख
में चाहे
एकाध बार
कुलेल कर
लेता हो,
पर हमने
तो उसे
कभी खुश
होते नहीं
देखा।
उसके चेहरे पर
एक स्थायी
विषाद स्थायी
रूप से छाया रहता है।
सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी
भी दशा
में उसे
बदलते नहीं
देखा। ॠषियों-मुनियों के
जितने गुण
हैं,
वे सभी उसमें पराकाष्ठा को
पहुँच गए
हैं, पर
आदमी उसे
बेवकूफ कहता
है। सद्गुणों
का इतना
अनादर कहीं
न देखा।
कादचित
सीधापन संसार के लिए उपयुक्त
नहीं है।
देखिए न, भारतवासियों
की अफ्रीका
में क्यों
दुर्दशा हो
रही है?
क्यों अमेरिका
में उन्हें
घुसने नहीं
दिया जाता?
बेचारे शराब
नहीं पीते,
चार पैसे
कुसमय के
लिए
बचाकर रखते हैं, जी तोडकर
काम करते
हैं, किसी
से लडाई-झगडा नहीं
करते, चार
बातें सुनकर गम खा जाते
हैं, फिर
भी बदनाम
हैं। कहा
जाता है,
वे जीवन
के आदर्श
को नीचा
करते हैं।
अगर वे
भी ईंट
का जवाब
पत्थर से
देना
सीख जाते, तो शायद सभ्य
कहलाने लगते।
जापान की
मिसाल समाने है। एक ही
विजय ने
उसे संसार
की सभ्य
जातियों में
गण्य बना
दिया। लेकिन
गधे का
एक छोटा भाई और भी
है, जो
उससे कम
ही गधा
है, और
वह है
'बैल। जिस
अर्थ में
हम गधा
का प्रयोग करते हैं, कुछ
उसी से
मिलते-जुलते
अर्थ में
'बछिया के
ताऊ का
भी प्रयोग
करते हैं।
कुछ लोग
बैल को
शायद बेवकूफों
में
सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर
हमारा विचार
ऐसा नहीं
है। बैल
कभी-कभी मारता
भी है,
कभी-कभी
अडियल बैल
भी देखने
में आता
है। और
भी
कई रीतियों से अपना असंतोष
प्रकट कर
देता है,
अतएव उसका
स्थान
गधे से नीचा है।
झूरी काछी के
दोनों बैलों
के नाम
थे हीरा
और
मोती। दोनों पछाई जाति के
थे- देखने
में सुन्दर,
काम में
चौकस, डील
में ऊँचे।
बहुत दिनों
से साथ रहते-रहते दोनों
में भाईचारा
हो गया
था। दोनों
आमने-सामने
या आसपास
बैठे हुए
एक-दूसरे से मूक भाषा
में विचार-विनिमय करते
थे। एक
दूसरे के
मन की
बात कैसे
समझ जाता
था,
हम नहीं कह सकते। अवश्य
ही उनमें
कोई ऐसी
गुप्त शक्ति
थी,
जिससे जीवों में श्रेष्ठता का
दावा करने
वाला मनुष्य
वंचित है।
दोनों एक-दूसरे
को चाटकर
और सूँघकर
अपना प्रेम प्रकट
करते, कभी-कभी दोनों
सींग भी
मिला लिया करते थे- विग्रह
के नाते
से नहीं,
केवल विनोद
के भाव
से,
आत्मीयता के भाव से, जैसे
दोस्तों में
घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने
लगता है।
इसके बिना
दोस्ती कुछ
फुसफुसी, कुछ
हल्की-सी
रहती है,
जिस पर
ज्यादा विश्वास
नहीं
किया जा सकता।
जिस वक्त ये
दोनों बैल
हल या
गाडी में
जोत दिए जाते और गर्दन
हिला-हिलाकर
चलते उस
वक्त हर
एक की
यही चेष्टा
होती थी
कि ज्याद-से-ज्यादा बोझ मेरी ही
गर्दन पर
रहे। दिनभर
के बाद
दोपहर या
संध्या को
दोनों खुलते,
तो एक-दूसरे को
चाट-चूटकर
अपनी थकान
मिटा लेते।
नाँद में खली-भूसा पड
जाने के
बाद दोनों
साथ उठते,
साथ नाँद
में मुँह डालते
और साथ
ही बैठते
थे। एक
मुँह हटा
लेता तो
दूसरा भी
हटा लेता
था।
संयोग की बात
है, झूरी
ने एक
बार गोईं
को ससुराल
भेज दिया।
बैलों को
क्या
मालूम वे क्यों भेजे जा
रहे हैं।
समझे, मालिक
ने हमे
बेच दिया। अपना यों बेचा
जाना उन्हें
अच्छा लगा
या बुरा,
कौन जाने
पर
झूरी के साले गया को
घर तक
गोईं ले
जाने में
दाँतों पसीना
आ गया।
पीछे से
हाँकता तो दोनों
दाएँ-बाएँ
भागते, पगहिया
पकडकर आगे
से खींचता
तो दोनों पीछे को जोर
लगाते। मारता
तो दोनों
सींग नीचे
करके हुँकरते।
अगर ईश्वर ने
उन्हें वाणी
दी होती,
तो झूरी
से पूछते-
तुम हम
गरीबों को
क्यों निकाल
रहे हो? हमने तो तुम्हारी
सेवा करने
में कोई
कसर नहीं
उठा रखी।
अगर इतनी
मेहनत
से काम न चलता था,
और काम
ले लेते,
हमें तो
तुम्हारी चाकरी
में मर
जाना कबूल
था। हमने
कभी दाने-चारे की
शिकायत
नहीं की। तुमने जो कुछ
खिलाया वह
सिर झुकाकर
खा लिया,
फिर
तुमने हमें इस जालिम के
हाथों क्यों
बेच दिया?
संध्या समय दोनों
बैल अपने
नए स्थान
पर पहुँचे। दिनभर
के भूखे
थे, लेकिन
जब नाँद
में लगाए
गए,
तो एक ने भी उसमें
मुँह न
डाला। दिल
भारी हो
रहा था।
जिसे उन्होंने अपना घर समझ
रखा था,
वह आज
उनसे छूट
गया था।
यह नया
घर,
नया गाँव, नए आदमी, उन्हें
बेगानों से
लगते थे।
दोनों ने अपनी
मूक भाषा
में सलाह
की, एक-दूसरे को
कनखियों से
देखा और
लेट गए।
जब गाँव
में सोता पड गया, तो
दोनों ने
जोर मारकर
पगहे तुडा
डाले और
घर की
तरफ
चले। पगहे बहुत मजबूत थे।
अनुमान न
हो सकता
था कि
कोई बैल
उन्हें तोड
सकेगा: पर
इन
दोनों में इस समय दूनी
शक्ति आ
गई थी।
एक-एक
झटके में
रस्सियाँ टूट
गईं।
झूरी प्रात: सोकर
उठा, तो
देखा कि
दोनों बैल
चरनी पर
खडे हैं।
दोनों ही
गर्दनों
में आधा-आधा गराँव लटक
रहा है।
घुटने तक
पाँव कीचड
से भरे
हैं और
दोनों की
ऑंखों में विद्रोहमय
स्नेह झलक
रहा है।
झूरी बैलों को
देखकर स्नेह
से गद्गद्
हो गया। दौडकर
उन्हें गले
लगा लिया।
प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह
दृश्य बडा
ही मनोहर
था।
घर और गाँव
के लडके
जमा हो
गए और
तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत
करने लगे।
गाँव के
इतिहास में
यह घटना
अभूतपूर्व न होने पर भी
महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा
ने निश्चय
किया, दोनों
पशु-वीरों
को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए।
कोई अपने
घर से
रोटियाँ लाया,
कोई गुड, कोई चोकर, कोई
भूसी।
एक बालक ने
कहा- ऐसे
बैल किसी
के पास
न होंगे।
दूसरे ने समर्थन
किया- इतनी
दूर से
दोनों अकेले चले आए।
तीसरा बोला- बैल
नहीं हैं
वे, उस
जनम के
आदमी हैं।
इसका प्रतिवाद करने
का किसी
को साहस
न हुआ।
झूरी की स्त्री
ने बैलों
को द्वार
पर देखा,
तो जल
उठी। बोली-
कैसे नमक-हराम बैल
हैं कि
एक दिन
वहाँकाम
न किया,
भाग खडे
हुए।
झूरी अपने बैलों
पर यह
आक्षेप न
सुन सका-
नमकहराम
क्यों हैं? चारा-दाना न
दिया होगा,
तो क्या
करते?
स्त्री ने रोब
के साथ
कहा- बस,
तुम्हीं तो
बैलों को
खिलाना जानते
हो, और
तो सभी
पानी पिला-पिलाकर रखते
हैं।
झूरी ने चिढाया-
चारा मिलता
तो क्यों
भागते?
स्त्री चिढी- भागे
इसलिए कि
वे लोग
तुम जैसे बुध्दुओं
की तरह
बैलों को
सहलाते नहीं।
खिलाते हैं,
तो रगडकर
जोतते भी
हैं। ये
दोनों ठहरे
कामचोर, भाग
निकले। अब
देखूँ? कहाँ
से खली
और चोकर
मिलता
है, सूखे भूसे के सिवा
कुछ न
दूँगी, खाएँ
चाहे मरें।
वही हुआ। मजूर
को बडी
ताकीद कर
दी गई
कि बैलों को खाली सूखा
भूसा दिया
जाए।
बैलों ने नाँद
में मुँह
डाला तो
फीका-फीका।
न
कोई चिकनाहट, न कोई रस।
क्याखाएँ? आशा भरी ऑंखों से
द्वार की
ओर ताकने
लगे।
झूरी ने मजूर
से कहा-
थोडी-सी
खली क्यों
नहीं
डाल देता बे?
'मालिकन मुझे मार
ही डालेंगी।
'चुराकर डाल आ।
'ना दादा, पीछे
से तुम
भी उन्हीं
की-सी
कहोगे।
दूसरे दिन झूरी
का साला
फिर आया
और बैलों
को
ले चला। अबकी उसने दोनों
को गाडी
में जोता।
दो-चार बार
मोती ने
गाडी को
सडक की
खाई में
गिराना
चाहा, पर हीरा ने संभाल
लिया। वह
ज्यादा
सहनशील था।
संध्या समय घर
पहुँचकर उसने
दोनों को
मोटी रस्सियों से बाँधा और
कल की
शरारत का
मजा चखाया।
फिर वही
सूखा भूसा
डाल दिया।
अपने दोनों
बैलों
को खली, चूनी सब कुछ
दी।
दोनों बैलों का
ऐसा अपमान
कभी न
हुआ था।
झूरी
इन्हें फूल की छडी से
भी न
छूता था।
उसकी टिटकार
पर दोनों
उडने लगते
थे। यहाँ
मार पडी। आहत-सम्मान की
व्यथा तो
थी ही,
उस पर
मिला सूखा
भूसा!
नाँद की तरफ
ऑंखें तक
न उठाईं।
दूसरे दिन गया
ने बैलों
को हल
में जोता,
पर इन
दोनों ने
जैसे पाँव
न उठाने
की कसम
खा ली
थी। वह मारते-मारते थक
गया, पर
दोनों ने
पाँव न
उठाया। एक
बार जब उस निर्दयी ने
हीरा की
नाक पर
खूब डण्डे
जमाए, तो
मोती का गुस्सा
काबू के
बाहर हो
गया। हल
लेकर भागा।
हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब
टूट-टाट कर बराबर हो
गया। गले
में बडी-बडी रस्सियाँ
न होती
तो दोनों
पकडाई में
न आते।
हीरा ने मूक
भाषा में
कहा- भागना
व्यर्थ है।
मोती ने उत्तर
दिया- तुम्हारी
तो इसने
जान ही ले ली थी।
'अबकी बडी मार
पडेगी।
'पडने दो, बैल
का जन्म
लिया है
तो मार
से कहाँ
तक बचेंगे।
'गया दो आदमियों
के साथ
दौडा आ
रहा है।
दोनों के
हाथों में
लाठियाँ हैं।
मोती बोला- कहो
तो दिखा
दूँ कुछ
मजा मैं
भी।
लाठी लेकर आ रहा है।
हीरा ने समझाया-
नहीं भाई!
खडे हो
जाओ।
'मुझे मारेगा, तो
मैं भी
एक-दो
को गिरा
दूँगा।
'नहीं। हमारी जाति
का यह
धर्म नहीं
है।
मोती दिल में
ऐंठकर रह
गया। गया
आ पहुँचा
और
दोनों को पकडकर ले चला।
कुशल हुई
कि उसने
इस वक्त
मारपीट न
की, नहीं
तो मोती
भी पलट
पडता। उसके
तेवर देखकर
गया और
उसके
सहायक समझ गए कि इस
वक्त टाल
जाना ही
मसलहत है।
आज दोनों के
सामने फिर
वही सूखा
भूसा लाया
गया।
दोनों चुपचाप खडे रहे। घर
के लोग
भोजन करने
लगे। उस
वक्त छोटी-सी लडकी
दो रोटियाँ
लिए
निकली, और दोनों के मुँह
में देकर
चली गई।
उस एक रोटी
से इनकी
भूख तो
क्या शांत
होती, पर
दोनों के
हृदय को
मानो भोजन
मिल गया।
यहाँ भी
किसी सज्जन का बास है।
लडकी भैरो
की थी।
उसकी माँ
मर चुकी
थी। सौतेली
माँ मारती
रहती थी, इसलिए
इन बैलों
से उसे
एक प्रकार
की आत्मीयता
हो गई
थी।
दोनों दिनभर जोते
जाते, डण्डे
खाते, अडते।
शाम को
थान
पर बाँध दिए जाते और
रात को
वही बालिका
उन्हें दो
रोटियाँ खिला
जाती। प्रेम
के इस
प्रसाद
की यह बरकत थी कि
दो-दो
गाल सूखा
भूसा खाकर
भी दोनों
दुर्बल न
होते थे,
मगर दोनों
की ऑंखों
में, रोम-रोम में
विद्रोह भरा हुआ था।
एक दिन मोती
ने मूक
भाषा में
कहा- अब
तो नहीं सहा जाता हीरा!
'क्या करना चाहते
हो?
'एकाध को सीगों
पर उठाकर
फेंक दूँगा।
'लेकिन जानते हो,
वह प्यारी
लडकी, जो
हमें रोटियाँ
खिलाती है,
उसी की
लडकी है,
जो इस
घर का
मालिक है।
यह बेचारी
अनाथ न
हो जाएगी?
'तो मालकिन को
न फेंक
दूँ। वही
तो उस
लडकी को
मारती है।
'लेकिन औरत जात
पर सींग
चलाना मना
है, यह
भूले जाते
हो।
'तुम तो किसी
तरह निकलने
ही नहीं
देते। बताओ,
तुडाकर भाग
चलें।
'हाँ, यह मैं
स्वीकार करता,
लेकिन इतनी
मोटी रस्सी
टूटेगी कैसे?
'इसका उपाय है।
पहले रस्सी
को थोडा-सा चबा
लो। फिर
एक झटके
में जाती
है।
रात को जब
बालिका रोटियाँ
खिलाकर चली
गई, दोनों
रस्सियाँ चबाने
लगे, पर मोटी रस्सी मुँह
में न
आती थी।
बेचारे बार-बार जोर
लगाकर रह
जाते थे।
सहसा घर का
द्वार खुला
और वही
बालिका निकली। दोनों
सिर झुकाकर
उसका हाथ
चाटने लगे।
दोनों की
पूँछें खडी
हो गईं।
उसने उनके माथे
सहलाए और
बोली- खोले
देती हूँ।
चुपके से
भाग
जाओ, नहीं तो यहाँ लोग
मार डालेंगे।
आज
घर में सलाह हो रही
है कि
इनकी नाकों
में नाथ
डाल दी
जाएँ।
उसने गराँव खोल
दिया, पर
दोनों चुपचाप
खडे रहे।
मोती ने अपनी
भाषा में
पूछा- अब
चलते क्यों
नहीं?
हीरा ने कहा-
चलें तो
लेकिन कल
इस अनाथ
पर आफत आएगी।
सब इसी
पर संदेह
करेंगे।
सहसा बालिका चिल्लाई-
दोनों फूफा
वाले बैल
भागे
जा रहे हैं। ओ दादा!
दोनों बैल
भागे जा
रहे हैं,
जल्दी दौडो।
गया हडबडाकर भीतर
से निकला
और बैलों
को पकडने चला। वे दोनों
भागे। गया
ने पीछा
किया। और
भी तेज
हुए। गया
ने शोर
मचाया। फिर
गाँव
के कुछ आदमियों को भी
साथ लेने
के लिए
लौटा। दोनों
मित्रों को
भागने का
मौका मिल
गया।
सीधे दौडते चले गए। यहाँ
तक कि
मार्ग का
ज्ञान न
रहा। जिस
परिचित मार्ग
से आए
थे, उसका
यहाँ पता
न था।
नए-नए
गाँव मिलने
लगे। तब
दोनों एक खेत के किनारे
खडे होकर
सोचने लगे,
अब क्या
करना चाहिए?
हीरा ने कहा-
मालूम होता
है, राह
भूल गए।
'तुम भी बेतहाशा
भागे। वहीं
उसे मार
गिराना था।
'उसे मार गिराते,
तो दुनिया
क्या कहती?
वह अपना
धर्म छोड
दे, लेकिन
हम अपना
धर्म क्यों
छोडें?
दोनों भूख
से व्याकुल
हो रहे
थे। खेत
में मटर खडी थी। चरने
लगे। रह-रहकर आहट
ले लेते
थे, कोई आता तो नहीं
है।
जब पेट
भर गया,
दोनों ने
आजादी का
अनुभव किया,
तो मस्त
होकर उछलने-कूदने लगे।
पहले दोनों
ने डकार
ली। फिर
सींग मिलाए
और
एक-दूसरे को ठेलने लगे।
मोती ने
हीरा को
कई कदम
हटा दिया,
यहाँ तक
कि वह
खाई में
गिर गया।
तब उसे
भी क्रोध
अया। सँभलकर
उठा और
फिर
मोती से भिड गया।मोती ने
देखा- खेल
में झगडा
हुआ चाहता
है, तो
किनारे हट
गया।
अरे! यह
क्या? कोई
साँड डौकता
चला आ
रहा है।
हाँ, साँड
ही है। वह सामने आ
पहुँचा। दोनों
मित्र बगलें
झाँक रहे
हैं। साँड
पूरा हाथी
है। उससे
भिडना
जान से हाथ धोना है,
लेकिन न
भिडने पर
भी जान
बचती नहीं
नजर
आती। इन्हीं की तरफ आ
भी रहा
है। कितनी
भयंकर सूरत
है।
मोती ने
मूक भाषा
में कहा-
बुरे फँसे।
जान बचेगी?
कोई उपाय
सोचो।
हीरा ने
चिन्तित स्वर
में कहा-
अपने घमण्ड
से
फूला हुआ है। आरजू-विनती
न सुनेगा।
भाग क्यों
न चलें?
भागना कायरता
है।
तो फिर
यहीं मरो।
बंदा तो
नौ-दो-
ग्यारह होता
है।
और जो
दौडाए?
तो फिर
कोई उपाय
सोचो, जल्द!
उपाय यही
है कि
उस पर
दोनों जनें
एक साथ
चोट करें?
मैं आगे
से रगेदता
हूँ, तुम
पीछे से
रगेदो, दोहरी
मार पडेगी,
तो भाग
खडा होगा।
मेरी
ओर झपटे, तुम बगल से
उसके पेट
में सींग
घुसेड देना।
जान जोखिम
है, पर
दूसरा उपाय
नहीं है।
दोनों मित्र
जान हथेलियों
पर लेकर
लपके। साँड को भी संगठित
शत्रुओं से
लडने का
तजरबा न
था। वह
तो एक
शत्रु से
मल्लयुध्द करने का आदी था। ज्यों
ही हीरा
पर झपटा,
मोती ने
पीछे से
दौडाया।
साँड उसकी तरफ मुडा, तो
हीरा ने
रगेदा। साँड
चाहता था
कि एक-एक करके दोनों
को गिरा
ले, पर
ये दोनों
भी उस्ताद
थे। उसे
वह
अवसर न देते थे।
एक बार
साँड झल्लाकर
हीरा का
अन्त कर
देने के लिए चला कि
मोती ने
बगल से
आकर पेट
में सींग
भोंक दी।
साँड क्रोध
में आकर
पीछे फिरा तो हीरा ने
दूसरे पहलू
में सींग
भोंक दिया।
आखिर बेचारा
जख्मी होकर
भागा और
दोनों मित्रों ने दूर तक
उसका पीछा
किया। यहाँ
तक कि
साँड बेदम
होकर गिर
पडा। तब
दोनों ने
उसे छोड दिया।
दोनों मित्र
विजय के
नशे में
झूमते चले
जाते थे।
मोती ने
अपनी सांकेतिक
भाषा में
कहा- मेरा
तो
जी चाहता था कि बच्चा
को मार
ही डालूँ।
हीरा ने
तिरस्कार किया-
गिरे हुए
बैरी पर
सींग
न चलाना
चाहिए।
यह सब
ढोंग है।
बैरी को
ऐसा मारना
चाहिए कि
फिर न
उठे।
अब घर
कैसे पहुँचेंगे,
वह सोचो।
पहले कुछ
खा लें,
तो सोचें।
सामने मटर
का खेत
था ही।
मोती उसमें
घुस गया। हीरा मान करता
रहा, पर
उसने एक
न सुनी।
अभी दो चार ग्रास खाए
थे कि
दो आदमी
लाठियाँ लिए
दौड पडे
और दोनों
मित्रों को
घेर लिया।
हीरा
तो मेड पर था, निकल
गया। मोती
सींचे हुए
खेत में
था। उसके खुर कीचड में
धँसने लगे।
न भाग
सका। पकड
लिया। हीरा
ने देखा,
संगी संकट
में है,
तो लौट
पडा। फँसेंगे
तो दोनों फँसेगे।
रखवालों ने
उसे भी
पकड लिया।
प्रात:काल
दोनों मित्र
काँजीहौस में
बन्द कर
दिए
गए।
दोनों मित्रों
को जीवन
में पहली बार ऐसा साबिका
पडा की
सारा दिन
बीत गया
और खाने
को एक
तिनका भी
न मिला।
समझ ही
में
न आता
था, यह
कैसा स्वामी
है?
इससे तो गया फिर भी
अच्छा था।
यहाँ कई
भैसे थीं,
कई बकरियाँ,
कई घोडे,
कई गधे,
पर किसी
के सामने
चारा न
था, सब
जमीन पर
मुर्दों की
तरह पडे
थे।
कई तो
इतने कमजोर
हो गए
थे कि
खडे भी
नहीं हो
सकते थे।
सारा दिन
दोनों
मित्र फाटक की ओर टकटकी
लगाए ताकते
रहे, पर
कोई चारा
लेकर
आता न दिखाई दिया। तब
दोनों ने
दीवार की
नमकीन मिट्टी
चाटनी शुरू
की, पर
इससे क्या
तृप्ति होती?
रात को
भी जब
कुछ भोजन
न मिला,
तो हीरा
के
दिल में विद्रोह की ज्वाला
दहक उठी।
मोती से
बोला- अब
तो नहीं
रहा जाता
मोती!
मोती ने
सिर लटकाए
हुए जवाब
दिया- मुझे
तो मालूम
होता है
प्राण निकल रहे हैं।
'इतनी जल्द
हिम्मत न
हारो भाई!
यहाँ से
भागने का
कोई उपाय
निकालना
चाहिए।
'आओ दीवार
तोड डालें।
'मुझसे तो
अब कुछ
नहीं होगा।
'बस इसी
बूते पर
अकडते थे?
'सारी अकड
निकल गई।
बाडे की
दीवार कच्ची
थी। हीरा
मजबूत तो
था ही,
अपने नुकीले
सींग दीवार
में गडा
दिए और
जोर मारा,
तो मिट्टी
का एक
चिप्पड निकल
आया। फिर
तो उसका
साहस बढा।
इसने दौड-दौडकर दीवार पर
चोटें की
और हर
चोट में
थोडी-थोडी
मिट्टी गिराने
लगा।
उसी समय
काँजीहौंस का चौकीदार लालटेन लेकर
जानवरों की
हाजिरी लेने निकला।
हीरा का
उजापन देखकर
उसने उसे
कई डण्डे
रसीद किए
और मोटी-सी रस्सी
से बाँध
दिया।
मोती ने
पडे-पडे
कहा- आखिर
मार खाई,
क्या
मिला?
'अपने बूते-भर जोर
तो मार
दिया।
'ऐसा जोर
मारना किस
काम का
कि और
बन्धन में
पड गए।
'जोर तो
मारता ही
जाऊँगा, चाहे
कितने ही बन्धन
पडते जाएँ।
'जान से
हाथ धोना
पडेगा।
'कुछ परवाह
नहीं। यों
भी मरना
ही है।
सोचो, दीवार
खुद जाती
तो कितनी
जानें बच
जातीं। इतने
भाई यहाँ
बन्द हैं।
किसी
के देह में जान नहीं
है। दो-चार दिन
और यही
हाल रहा,
तो सब मर जाएँगे।
'हाँ, यह
बात तो
है। अच्छा,
तो ला,
फिर मैं
भी जोर
लगाता हूँ।
मोती ने
भी दीवार
में उसी
जगह सींग
मारा। थोडी-सी मिट्टी
गिरी तो हिम्मत
और बढी।
फिर तो
वह दीवार
में सींग
लगाकर इस
तरह जोर
करने लगा,
मानो किसी
प्रतिद्वन्द्वी से लड रहा है।
आखिर कोई
दो घण्टे
की जोर-आजमाई के बाद
दीवार ऊपर
से लगभग
एक हाथ
गिर गई।
उसने दूनी
शक्ति से
दूसरा धक्का
मारा,
तो आधी दीवार गिर पडी।
दीवार का
गिरना था
कि अधमरे-से पडे
हुए सभी
जानवर चेत
उठे। तीनों घोडियाँ
सरपट भाग
निकलीं। फिर
बकरियाँ निकलीं।
इसके बाद
भैसें भी
खिसक गईं, पर गधे अभी
तक ज्यों-के-त्यों
खडे थे।
हीरा ने
पूछा- तुम
दोनों क्यों
नहीं भाग
जाते?
एक गधे
ने कहा-
जो कहीं
फिर पकड
लिए जाएँ?
'तो क्या
हरज है।
अभी तो
भागने का
अवसर है।
'हमें तो
डर लगता
है। हम
यहीं पडे
रहेंगे।
आधी रात
से ऊपर
जा चुकी
थी। दोनों
गधे अभी
तक खडे
सोच रहे
थे कि
भागें
या न भागें। मोती अपने
मित्र की
रस्सी तोडने
में लगा
हुआ था।
जब वह
हार गया, तो हीरा ने
कहा- तुम
जाओ, मुझे
यहीं पडा रहने दो। शायद
कहीं भेंट
हो जाए।
मोती ने
ऑंखों में
ऑंसू लाकर
कहा- तुम
मुझे इतना
स्वार्थी समझते
हो,
हीरा? हम और तुम इतने
दिनों एक
साथ रहे
हैं।
आज तुम विपत्ति में पड
गए, तो
मैं तुम्हें
छोडकर अलग
हो जाऊँ।
हीरा ने
कहा- बहुत
मार पडेगी।
लोग समझ
जाएँगे, यह
तुम्हारी शरारत
है।
मोती गर्व
से बोला-
जिस अपराध
के लिए
तुम्हारे गले
में बंधन
पडा,
उसके लिए अगर मुझ पर
मार पडे,
तो क्या
चिन्ता!
इतना तो हो ही गया
कि नौ-दस प्राणियों
की जान
बच गई।
वे सब
तो आर्शीवाद
देंगे ।
यह कहते
हुए मोती
ने दोनों
गधों को
सीगों से
मार-मारकर
बाडे के
बाहर
निकाला और तब अपने बन्धु
के पास
आकर सो
रहा।
भोर होते
ही मुंशी
और चौकीदार
तथा अन्य
कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके
लिखने की
जरूरत नहीं।
बस, इतना
ही काफी
है कि
मोती की
खूब मरम्मत
हुई और
उसे भी
मोटी रस्सी
से बाँध दिया।
एक सप्ताह
तक दोनों
मित्र बँधे
पडे रहे।
किसी
ने चारे का एक तृण
भी न
डाला। हाँ,
एक
बार पानी दिखा दिया जाता
था। यही
उनका आधार
था। दोनों
इतने दुर्बल
हो गए
थे कि
उठा
तक न जाता, ठठरियाँ निकल
आई थीं।
एक दिन
बाडे के
सामने डुग्गी
बजने लगी
और दोपहर होते-होते वहाँ
पचास-साठ
आदमी जमा
हो गए।
तब दोनों
मित्र निकाले
गए और
उनकी देख-भाल होने लगी।
लोग आ-आकर उनकी
सूरत देखते
और मन
फीका करके
चले जाते।
ऐसे मृतक
बैलों का कौन खरीददार होता?
सहसा एक
दढियल आदमी,
जिसकी ऑंखें
लाल थीं
और मुद्रा
अत्यन्त कठोर,
आया और
दोनों मित्रों
के कूल्हों
में उँगली
गोदकर मुंशीजी
से बातें
करने
लगा। उसका चेहरा देखकर अन्तज्र्ञान
से दोनों
मित्रों के
दिल काँप
उठे। वह
कौन है
और
उन्हें क्यों टटोल रहा है,
इस विषय
में उन्हें
कोई संदेह
न
हुआ। दोनों ने एक दूसरे
को भीत
नेत्रों से
देखा और
सिर झुका
लिया।
हीरा ने
कहा- गया
के घर
से नाहक
भागे। अब
जान
न बचेगी।
मोती ने
अश्रध्दा के
भाव से
उत्तर दिया-कहते हैं,
भगवान सबके
ऊपर दया
करते हैं।
उन्हें हमारे
ऊपर क्यों
दया
नहीं आती?
भगवान के
लिए हमारा
मरना-जीना
दोनों बराबर
है।
चलो, अच्छा ही है, कुछ
दिन उसके
पास तो
रहेंगे। एक
बार भगवान
ने उस
लडकी के
रूप में
हमें बचाया था। क्या अब
न बचाएँगे?
यह आदमी
छुरी चलाएगा।
देख लेना।
तो क्या
चिन्ता है?
माँस, खाल,
सींग, हड्डी
सब किसी-न-किसी
काम आ
जाएगी।
नीलाम हो
जाने के
बाद दोनों
मित्र उस
दढियल के साथ चले। दोनों
की बोटी-बोटी काँप
रही थी।
बेचारे पाँव
तक न
उठा सकते
थे, पर
भय के
मारे गिरते-पडते भागे
जाते थे,
क्योंकि वह
जरा भी
चाल धीमी
हो जाने
पर जोर
से डण्डा
जमा देता
था।
राह में
गाय-बैलों
का रेवड
हरे-हरे
हार में
चरता
नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न
थे, चिकने,
चपल, कोई
उछलता था,
कोई
आनन्द से बैठा पागुर करता
था। कितना
सुखी जीवन
था इनका,
पर
कितने स्वार्थी हैं सब। किसी
को चिन्ता
नहीं कि
उनके दो
भाई बधिक
के हाथ
पडे कैसे
दु:खी हैं।
सहसा दोनों
को ऐसा
मालूम हुआ
कि यह
परिचित राह है। हाँ, इसी
रास्ते से
गया उन्हें
ले गया था। वही खेत,
वही बाग,
वही गाँव
मिलने
लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज
होने लगी।
सारी थकान,
सारी दुर्बलता गायब हो गई।
आह! यह
लो! अपना
ही हार
आ गया।
इसी कुएँ
पर हम
पुर चलाने
आया करते
थे,
यही कुऑं है।
मोती ने
कहा-हमारा
घर नगीच
आ गया।
हीरा बोला-
भगवान की
दया है।
मैं तो
अब घर
भागता हूँ।
यह जाने
देगा?
इसे मार
गिरता हूँ।
नहीं-नहीं,
दौडकर थान
पर चलो।
वहाँ से
हम आगे
न जाएँगे।
दोनों उन्मत
होकर बछडों
की भाँति
कुलेलें करते हुए घर की
ओर दौडे।
वह हमारा
थान है।
दोनों दौडकर
अपने थान
पर आए
और खडे
हो गए।
दढियल
भी पीछे-पीछे दौडा चला
आता था।
झूरी द्वार
पर बैठा
धूप खा
रहा था।
बैलों को देखते
ही दौडा
और उन्हें
बारी-बारी
से गले
लगाने लगा।
मित्रों की
ऑंखों में
आनन्द के ऑंसू बहने लगे।
एक झूरी
का हाथ
चाट रहा
था।
दढियल ने
जाकर बैलों
की रस्सियाँ
पकड लीं।
झूरी ने
कहा- मेरे
बैल हैं।
तुम्हारे बैल
कैसे? मैं
मवेशीखाने से नीलाम लिए आता
हूँ।
मैं तो
समझता हूँ
चुराए लिए
आते हो!
चुपके से
चले जाओ।
मेरे बैल
हैं। मैं
बेचूँगा, तो
बिकेंगे। किसी
को मेरे बैल नीलाम करने
का क्या
अख्तियार है?
जाकर थाने
में रपट
कर दूँगा।
मेरे बैल
हैं। इसका
सबूत यह
है कि
मेरे द्वार
पर खडे
है।
दढियल झल्लाकर
बैलों को
जबरदस्ती पकड
ले जाने के लिए बढा।
उसी वक्त
मोती ने
सींग चलाया।
दढियल पीछे
हटा। मोती
ने पीछा
किया। दढियल भागा।
मोती पीछे
दौडा। गाँव
के बाहर
निकल जाने
पर वह रुका,
पर खडा
दढियल का
रास्ता देख
रहा
था। दढियल दूर खडा धमकियाँ
दे रहा
था, गालियाँ
निकाल रहा
था,
पत्थर फेंक रहा था। और
मोती विजयी
शूर की
भाँति उसका
रास्ता रोके खडा था। गाँव
के लोग
यह तमाशा
देखते थे
और हँसते
थे। जब
दढियल हारकर
चला गया, तो मोती अकडता
हुआ लौटा।
हीरा ने
कहा- मैं
डर रहा
था कि
कहीं तुम
गुस्से
में आकर मार न बैठो।
अगर वह
मुझे पकडता,
तो मैं
बे-मारे
न छोडता।
अब न आएगा।
आएगा तो
दूर ही
से खबर
लूँगा। देखूँ,
कैसे ले
जाता है।
जो गोली
मरवा दे?
मर जाऊँगा,
पर उसके
काम तो
न आऊँगा।
हमारी जान
को कोई
जान नहीं
समझता।
इसलिए कि
हम इतने
सीधे हैं।
जरा देर में
नाँदों में
खली, भूसा,
चोकर और
दाना भर
दिया गया और दोनों मित्र
खाने लगे।
झूरी खडा
दोनों को
सहला रहा
था और
बीसों लडके
तमाशा देख
रहे
थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम
होता था।
उसी समय
मालकिन ने
आकर दोनों
के माथे
चूम लिए।
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